भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुछ अपनी कही आपकी कुछ उसकी कही है / रामदरश मिश्र
Kavita Kosh से
कुछ अपनी कही आपकी कुछ उसकी कही है
पर इसके लिए यातना क्या-क्या न सही है
भटका कहाँ-कहाँ अमन-चैन के लिए
थक-थक के मगर घर की वही राह गही है
दस्तक दी किसी दर पे बयांबां में रात को
आवाज़-सी आदमी कि यहाँ कोई नहीं है
कुछ ख़्वाब रचे रात में की दिन से गुफ़्तगूं
बस मेरे सफ़र की यही सौग़ात रही है
तोड़ा है अब भी देवता पत्थर का किसी ने
लोगों ने कहा— भागने पाय न, यही है
खोजो न इसमें दोस्तों बाज़ार की हँसी
गाता है इसमें दर्द, ये शायर की बही है
तुम लाख छिपाओ रहबरी आवाज़ में मगर
झुलसी हुई बस्ती ने कहा— ये तो वही है
आँगन में सियासत की हँसी बनती रही मीत
अश्कों से अदब के वो बार-बार ढही है