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कुछ इदारे थे कुछ मोहब्बत थी / दीपक शर्मा 'दीप'
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कुछ इदारे थे कुछ मोहब्बत थी
थी यही जीस्त की हक़ीक़त थी
उससे वैसा ही तो मिला मुझको
जिस से जैसी मिरी नफ़ासत थी
एक अरसा बिठाके रखना और
एक लमहे की बस इजाज़त थी
मैं किधर जा के मरने वाला था
आप सब की ही तो इनायत थी
इक तरफ़ मैं था लाश होकर के
इक तरफ़ मेज पर वसीयत थी
वो महज जान ले के माना,और
क्या यही कम कोई रियायत थी?
आज का दिन ग़ज़ब-बुरा गुज़रा
आज कुछ ठीक-सी तबीयत थी
उससे करता ही प्यार क्योंकर था
जबकि उससे ही सब मुसीबत थी
जिस के होंठों पे तिल था कोने पे
उनकी सखियों में वो क़यामत थी