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कुछ ऐसा उतरा मैं उस संग-दिल के शीशे में / 'मुज़फ्फ़र' वारसी
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कुछ ऐसा उतरा मैं उस संग-दिल के शीशे में
के चंद साँस भी आए न अपने हिस्से में
वो एक ऐसे समुंदर के रूप में आया
के उम्र कट गई जिस को उबूर करने में
मुझे ख़ुद अपनी तलब का नहीं है अंदाज़ा
ये काइनात भी थोड़ी है मेरे कासे में
मिली तो है मेरी तंहाइयों को आज़ादी
जुड़ी हुई हैं कुछ आँखें मगर दरीचे में
ग़नीम भी कोई मुझ को नज़र नहीं आता
घिरा हुआ भी हूँ चारों तरफ़ से ख़तरे में
मेरा शुऊर भी शायद वो तिफ़्ल-ए-कम-सिन है
बिछड़ गया है जो गुम-राहियों के मेले में
हुनर है शाएरी शतरंज शौक़ है मेरा
ये जाइदाद 'मुज़फ़्फ़र' मिली है वरसे में