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कुछ ऐसा करो मित्र / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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कभी कभी मेरे होने में
अचानक
दो एक पल सन्नाटा बुन जाता है.

तब मेरी इयत्ता नहीं होती
बस एक निस्सीम प्रवाह होता है.

तब न मैं होता हूँ
न मेरा सर्जक
सिर्फ एक रचना होती है
एक द्रष्टा होता है.

मन के कोरा हुए क्षितिज पर
तुम्हारी रश्मि-दस्तकें
किरणों में उरह जाती हैं
क्षणों में बीत रहा मैं
कदाचित अपने अस्तित्व के
निकट होता हूँ
मुखौटों से विहीन
भेद-स्तरों से रहित.

कुछ ऐसा करते मेरे मित्र
ये पल मुझमें ठहर जाते
या इन पलों में
मैं ठहर जाता.

आग्रही मनोनिर्मितियों और
ग्रंथियों के टूटने के खतरे
समकालीन प्रवाह के थपेड़ों में
बिगड़ते संतुलनों को झेलती
पत्ती की तरह
संत्रास और कुंथा मैं झेल सकूँगा.

बीते पलों में गरिमा पिरोने में
मे रस नहीं
जीवंत पलों के संस्कारों में बैठना
मुझे आता है
सन्नाटा भरे इन पलों में ठहर कर
अपने में होने का उल्लास
और परिवेश से कटाव का
संकटापन्न अहसास
कुछ उधार का ओढ़ने से
मुझे बेहतर लगता है.

दो एक पल का यह सन्नाटा
जीवन से भरा
मेरे अस्तित्व के तट पर बरसता
मेरे अंतर्बाह्य सहभागों का
जीवित साक्षी होता है.
मित्र कुछ ऐसा करो
मेरे होने में ये पल
गहरा उठें..