भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुछ और फुटकर शेर / फ़ानी बदायूनी
Kavita Kosh से
यूँ सब को भुला दे कि तुझे कोई न भूले।
दुनिया ही में रहना है तो दुनिया से गुज़र जा॥
क्या-क्या गिले न थे कि इधर देखते नहीं।
देखा तो कोई देखनेवाला नहीं रहा।।
एक आलम को देखता हूँ मैं।
यह तेरा ध्यान है मुजस्सिम क्या॥
फ़ुरसते-रंजेअसीरी दी न इन धड़कों ने हाय।
अब छुरी सैयाद ने ली, अब क़फ़स का दर खुला॥
मंज़िले-इश्क़ पै तनहा पहुँचे कोई तमन्ना साथ न थी।
थक-थक कर इस राह में आख़िर इक-इक साथी छूट गया॥