भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुछ कहना मुश्किल है / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
जिनसे मिले नहीं कभी हम
उनसे भी नये संबंध बन जाते हैं
जहां विश्वास हो आंखें जुड़ जाती हैं
और जहां नहीं हो, आदमी दूर भागता रहता है
सारी कुर्सियां मित्रवत् स्थान देती है सबों को
कुछ देर बैठे, बातें की, फिर चले गए
फिर कोई दूसरा आकर बैठ गया
हालांकि सामने वाली कुर्सी पर
सिर्फ एक आदमी का हक है
उसका व्यक्तित्व हम पर हमेशा हावी
यह रहस्य है कौन किस तरह से जीता है
मुलाकात सफलता में बदल जाए तो प्यारी बात है
अब पता नहीं कब मिलेंगे उनसे हम
अगली बार भी वे इसी तरह से पेश आयेंगे या नहीं
यह कहना बिल्कुल मुश्किल है।