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कुछ कही-कुछ अनकही-1 / महेश चंद्र पुनेठा

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मैं भी चाहती हूँ
कि मुझे भी करे प्यार से स्पर्श कोई
भीतर तक भीगो दे स्पर्श उसका
मैं भी चाहती हूँ
आँखों की गहराई में झाकें कोई
पढ़ने की कोशिश करे उनको
मैं भी चाहती हॅू
कि कोई समझे मेरी साँसों की लय
सुनें उनकी गति
छाती में कान लगाकर

मैं भी चाहती हूँ भीगना
प्रेम की बारिश में
मैं भी चाहती हूँ
प्यार से अपनी बगल में बैठाकर
कोई पूछे मुझसे--
क्या चल रही है तुम्हारे मन में
उथल-पुथल
क्या कष्ट है तुम्हें
क्यों रहती हो तुम इन दिनों
उदास-उदास ।

कोई कहे मुझसे भी -
हूँ ना मैं !
मेरे होते तुम्हें चिंता करने की ज़रूरत नहीं

मैं भी चाहती हॅू
किसी के हथेलियों की गर्माहट का अहसास
सिर-दर्द हो गर
हल्के -हल्के हाथों से
लगा दे बाम
कमर दर्द में मूव, कोई ।

मैं कोई प्लास्टिक की गुड़िया तो नहीं
मेरी भी तो हैं कुछ इच्छाएँ
मुझे भी लगता है कुछ अच्छा
और कुछ बुरा ।