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कुछ कही-कुछ अनकही-2 / महेश चंद्र पुनेठा

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हाथ बँटाना तो होता नहीं तुमसे कभी
पुरुष होने की इज़्ज़त में बट्टा जो लग जाएगा ।

सारा काम निबटाकर
आराम को आती हॅू जब बिस्तर में
कुलबुलाने लगती हैं इच्छाएँ तुम्हारी
हर रात ।

ज़ुर्रत भी महसूस नहीं करते हो
जानने की मेरी इच्छा
जैसे कोई शिकारी ।
करो भी क्यों
ढोल बजाकर जो लाए हो ।

रौंद डालते हो मेरे शरीर को
जैसे बिगड़ा साँड़ किसी खेत को
मेरी चीत्कार भी
नहीं देती सुनाई तुम्हें
तुम चाहते हो तुम्हारे वहशीपन में भी
महसूस करूँ मैं आनंद ।

सब कुछ चाहिए तुम्हें
नहीं मिल पाए जो उसी में हंगामा ।

और
मेरा मन रखने को भी
नहीं कर सकते तुम कभी
मेरी झूठी तारीफ़ तक ।

पता नहीं क्यों तुम्हें अब
मुझमें दिखाई नहीं देते कोई गुण ।

कभी तो तुम्हें दिखाई देगा
मुझमें कुछ अच्छा
खटती रहती हूँ
इस चाह में दिन-रात ।

अपने को
बड़ा ही दिखाते रहते हो
हर हमेशा
और
मुझे मति-मूढ़
चाहे तुमसे होता न हो
एक तिनका भी टेढ़ा ।

मैं बिछती रही जितनी
तुम पसरते गए उतना ।

कहते रहे समय-समय पर--
’’मैं कितना प्यार करता हॅू तुम्हें
नहीं जानती तुम‘‘
और
मैं भुलाती रही सब कुछ
और
तुम चलाते रहे सब कुछ ।