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कुछ कही-कुछ अनकही-3 / महेश चंद्र पुनेठा
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मुझे हँसी आती है तुम पर
कभी-कभी दया भी
जिसको तुम अपनी कहते-फिरते हो
वह कब की
जा चुकी है तुम से बहुत दूर
जो है तुम्हारे हाथ में
वह तो केवल ढाँचा है हाड़-माँस का
जितना तुम दावा करते हो उसमें
उतनी तुम्हारे हाथ से निकलती जाती है वह
जितना भींचना चाहते हो
उतनी ही खिसकती जाती है वह
तुम पहरा बैठाकर शरीर को अपने कब्ज़े में
रख सकते हो
पर मन को कैसे बाँधा जा सकता है
तुम्हें पता नहीं
यह न धन का प्रश्न है
और न ही बल का
न सत्ता
न अहंकार का
न इसके लिए धन चाहिए
और न बल
इसके लिए चाहिए
केवल मन ।