कुछ कह नहीं पाता हूँ / विजय कुमार पंत
अधीरता
नित नए बहानों के साथ
ले आती है
तुम्हारे नज़दीक..
पर देखते ही तुम्हारी आँखों में
सब कुछ भूल जाता हूँ
मैं कुछ कह नहीं पाता हूँ.. ..
जगी रातों को करता रहता हूँ
छदम कोशिशें स्वयं को साहस देने की
फिर सुबह के उजाले में
वास्तविकता समझ पाता हूँ
कि मैं कुछ कह नहीं पाता हूँ.. .
मैंने बड़ी कोशिश की है
पढने की तुम्हारी निगाहों को
पर मुश्किल ये है कि..
मिलने से पहले ही झुक जाती है
मेरी नज़रें..
लगता है अधिक समय तक ऑंखें देखती रही तो
पथरा जाएँगी
और घूरना असभ्यता है..
मन की कौन सोचता है..
सभ्यता व्यव्हार होकर भी
शारीरिक भाषा है
मुझे बेहद निराशा है
कि..
मैं तुम्हारे चलने, फिरने,
उठने, बैठने
बोलने, चालने के तरीकों में
छुपे अर्थों की गहराइयों में
खोया ही रह जाता हूँ..
बेबस सी श्रेष्ठ अनुभूति को समझ
कभी तुम स्वयं
मेरे शुष्क अधरों को
रक्तवर्णी कर दोगी..
यही सोच सोच कर मुस्कुराता हूँ..
हो सकता है
इसी लिए
शायद मैं भी कुछ कह नहीं पाता हूँ..