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कुछ ख़्वाब इस तरह से जहाँ में बिखर गए / फ़िरदौस ख़ान
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कुछ ख़्वाब इस तरह से जहाँ में बिखर गए
अहसास जिस क़द्र थे वह सारे ही मर गए
जीना मुहाल था जिसे देखे बिना कभी
उसके बग़ैर कितने ज़माने गुज़र गए
माज़ी किताब है या अरस्तु का फ़लसफ़ा
औराक़ जो पलटे तो कई पल ठहर गए
कब उम्र ने बिखेरी है राहों में कहकशां
रातें मिली स्याह, उजाले निखर गए
सहरा में ढूँढते हो घटाओं के सिलसिले
दरिया समन्दरों में ही जाकर उतर गए
कुछ कर दिखाओ, वक़्त नहीं सोचने का अब
शाम हो गई तो परिंदे भी घर गए
'फ़िरदौस' भीगने की तमन्ना ही रह गई
बादल मेरे शहर से न जाने किधर गए