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कुछ चलेगा जनाब, कुछ भी नहीं / ‘अना’ क़ासमी
Kavita Kosh से
कुछ चलेगा जनाब, कुछ भी नहीं
चाय, कॉफी, शराब, कुछ भी नहीं
चुप रहें तो कली लगें वो होंट
हंस पड़ें तो गुलाब कुछ भी नहीं
जो ज़मीं पर है सब हमारा है
सब है अच्छा, खराब कुछ भी नहीं
इन अमीरों की जेब के आगे
हम ग़रीबों के ख़्वाब कुछ भी नहीं
मन की दुनिया में सब ही उरियां हैं
दिल के आगे हिजाब कुछ भी नहीं
मीरे-ख़स्ता के शेर के आगे
हम से ख़ानाख़राब कुछ भी नहीं
उम्र अब अपनी अस्ल शक़्ल में आ
क्रीम, पोडर, खि़ज़ाब कुछ भी नहीं
ज़िन्दगी भर का लेन देन ‘अना’
और हिजाबो-किताब कुछ भी नहीं