भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ टुकड़े / केदारनाथ सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


1.

जिससे मिलने गया था
उससे मिलकर जब बाहर आया
सोचा, ये जो विराट इमारत है
ब्रह्माण्ड की
क्यों न हिला दूँ
इसकी कोई ईंट
इस अद्‍भुत्त विचार से रोमांचित
अभी मैं खड़ा ही था
कि ठीक मेरे सामने
एक छोटा पत्ता टूटकर गिरा
और मैंने देखा ब्रह्माण्ड
हिल रहा है।

2.

उस बूढ़े भिखारी को
आज भी देखा
पर आज उस पर दया नहीं आई
दया आई तो ख़ुद पर
कि देखो न इस गावदी को
कि बीसवीं शताब्दी के
इस अन्तिम दशक में भी
एक भिखारी पर दया करने की
हिमाक़त करता है।

3.

और यह तो आप जानते ही होंगे
पर मेरा दुर्भाग्य कि मैंने इतनी देर से
और बस अभी-अभी जाना
कि मेरे समय के सबसे महान‍ चित्र
पिकासो ने नहीं
मेरी गली के एक बूढ़े रंगरेज़ ने
बनाए थे।