भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुछ तो कमरे में गुजर होगा हवा का पागल / एहतराम इस्लाम
Kavita Kosh से
कुछ तो कमरे में गुजर होगा हवा का पागल
खिडकियां खोल की है हब्स बला का पागल
उसकी बकवास में होती है पते की बात
कभी कर दे न कोई तेज धमाका पागल
क्यों बनाने पे तुला है तू कोई ताजमहल
हाथ कटवाएगा क्या तू अपनी कला का पागल
खैर हो आज निकल आया है घर से बाहर
अपने हाथों में लिए अग्नि शलाका पागल
हर इमारत से लपकते हैं घृणा के शोले
किसपे फहराएगा तू प्रेम पताका पागल
तूने सोचा ही कभी अपने लिए कुछ भी कभी
क्यों न ठहराएं तुझे लोग सदा का पागल
बात बस यही है की अन्य्याय नहीं सह पाटा
सभी कहते हैं जिसे दुष्ट लड़ाका पागल