कुछ तो बचा है / रामदरश मिश्र
अबकी गाँव गया
तो गाँव के चारों ओर व्याप्त सन्नाटे ने मुझे डँस लिया
बस खेत ही खेत
कहाँ गये गाँव के तीनों बागीचे
और यहाँ-वहाँ खड़े पेड़
भतीजे ने कहा-
”गतवर्ष आई बाढ़ ने इन्हें निगल लिया“
गाँव में इतने वर्षों से बाढ़ आती रही है
फसलों को तो हड़पती रही है
लेकिन पेड़ उसमें डूबे हुए भी
उसे चुनौती देते रहे हैं
”डायन, तू चाहे जितना ज़ोर लगा ले
हम सही-सलामत रहेंगे“
और बागों के साथ
हमारे तीज-त्योहार, शादी-ब्याह
खेल-कूद की यात्राएँ चलती आ रही हैं
ऋतुएँ उन पर अपनी आभा बिखेरती रही हैं
पंछियों का सहगान गूँजता रहा है
थकी यात्राएँ आकर छँहाती रही हैं
तो पता नहीं क्यों
इस बार एक भी पेड़ नहीं बचा
शाम को पूरब दिशा की ओर निकला
तो मन एकाएक चहक उठा
अरे खलिहान में
पाकड़ के दो बड़े-बड़े पेड़ अभी ज़िन्दा हैं
इन्हें देखते ही कितना कुछ जाग उठा
लगा कि बसंत आ गया है
और इन पर किसलयों की लाल लाल आभा फैल गई है
इन पर बैठकर कोकिल कूक रहे हैं
डाँठों से भर गया है खलिहान
एक पाकड़ के नीचे मेरा भी खलिहान है
मैंने कितनी बार दँवरी हाँकी है
ओसौनी की है
रातों को सोया हूँ, अनेक सपने देखे हैं
लगा कि चैता का राग उठ रहा है
और चाँदनी में तैरता हुआ
चला जा रहा है दिगंतों की ओर
सामूहिक हँसी-ठट्ठा के स्वर में समय नहा रहा है
इस पाकड़ के नीचे बरम बाबा की पीढ़ी है
ब्याहने जाते दूल्हे को लेकर
महिलायें यहाँ आ गई हैं
और उनका वैवाहिक मंगल-गान गूँज रहा है
इन पाकड़ों को देखकर मैं आश्वस्त हुआ
चलो, कुछ तो बचा है गाँव में गाँव का।
-10.10.2014