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कुछ तो सच्चाई के शह-कार नज़र में आते / जमुना प्रसाद 'राही'

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कुछ तो सच्चाई के शह-कार नज़र में आते
काश हम लोग न ख़्वाबों के असर में आते

हम ने इस ख़ौफ से ख़ाकों को मुकम्मल न किया
शाम के रंग भी तस्वीर-ए-सहर में आते

जब के हर रौज़न-ए-दीवार नमक-दाँ ठहरा
कैसे मजरूह उजाले मेरे घर पे आते

सोए-पनघट पे जमी बर्फ़ पिघल सकती थी
प्यासे सूरज तो कभी मेरे नगर में आते

अजनबियत के दरीचों में खुली थी आँखें
किस के साए मेरे ख़्वाबों के खँडर में आते