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कुछ तो है / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

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कुछ तो है
जो लम्हा-लम्हा खुल रहा है
लम्हा-लम्हा सिमट रहा है
कुछ तो है
जिसकी गिरफ़्त में
आ चुका हूँ मैं
पकड़ बढ़ती ही जाती है
और ऐसे में अक्सर
थाम कर तुम्हारी याद की अंगुली
किसी मासूम बच्चे की तरह
निकल पड़ता हूँ मैं
तुम्हारे पीछे-पीछे
कुछ तो है
जिसकी ख़ातिर
भटकता रहता हूँ
ख़्वाब के वीराने में
कभी मस्जिद, कभी मैखाने में
कुछ तो है
जिसका दायरा बढ़ता ही जाता है
और ख़ून में शामिल हो रहा है
धीरे-धीरे, चुपके से, दबे पाँव
जैसे साँस खोती है गर्माहट
जैसे धड़कन की होती है आहट
जैसे फूल खुशबू देता है
जैसे तुम्हारी आँखें महकती है
जैसे मैं देखता हूँ तुमको
जैसे दिल चाहता है दिल को
जैसे तुम छेड़ती हो मुझको
जैसे एक धूप का टुकड़ा
रहता है तुम्हारी आँखों में
जिसकी चमक पाकर
रौशन है मेरी रूह
ज़िंदा है मेरा फ़न, मेरा हुनर