कुछ दोहे / कुलवंत सिंह
मधुर प्रीत मन में बसा, जग से कर ले प्यार.
जीवन होता सफल है, जग बन जाये यार.
मधुर मधुर मदमानिनी, मान मुनव्वल मीत.
मंद मंद मोहक महक, मन मोहे मनमीत.
नन्हा मुझे न जानिये, आज भले हूं बीज.
प्रस्फुटित हो पनपूंगा, दूंगा आम लजीज .
पढ़ लिख कर सच्चा बनो, किसको है इंकार.
दुनियादारी सीख लो, जीना गर संसार.
सच की अर्थी ढ़ो रहा, ले कांधे पर भार.
पहुंचाने शमशान भी, मिला न कोई यार.
देश को नोचें नेता, बन चील गिद्ध काग.
बोटी बोटी खा रहे, कैसा है दुर्भाग.
रावण रावण जो दिखे, राम करे संहार.
रावण घूमें राम बन, कलयुग बंटाधार.
मर्यादा को राखकर, बेच मान अभिमान
कलयुग का है आदमी, धन का बस गुणगान.
मैं मैं मरता मर मिटा, मिट्टी मटियामेट.
मिट्टी में मिट्टी मिली, मद माया मलमेट.
छल कपट लूट झूठ सब, चलता जीवन संग.
सच पर अब जो भी चले, लगे दिखाता रंग.
सांप छछूंदर नेवला, किसमें ज्यादा जहर.
हार मानी तीनों ने, आदम देखा शहर.
कलयुग में मैं ढो़ रहा, लेकर अपनी लाश.
सत्य रखूँ यां खुद रहूँ, खुद का किया विनाश.
भगवन सुख से सो रहा, असुर धरा सब भेज.
देवों की रक्षा हुई, फंसा मनुज निस्तेज.
बात धर्म की सब करें, धारण करे न कोय.
जो इसको धारण करे, दुख काहे को होय.
चित्त निर्मल हर पल रहे, रहे न एक विकार.
शुद्ध धरम की सीख यह, जो धारे भवपार.
सत्य धरम बस एक है, प्रकृति नियम ले जान.
पैदा हुए विकार ज्यों, दुख का होये भान.
दुनिया भर में ढ़ूंढ़ता, मिला न सच्चा ज्ञान.
अपने भीतर जब गया, हुआ सत्य का भान .
धरम सिखाये शुद्धता, धरम सिखाये शील.
मर्यादा यह धरम की, कभी न देना ढ़ील.
एक धरम बस जगत में, बिलकुल सीधी राह.
मार्ग मुक्ति का दिखाये, आओ जिसको चाह.
कण कण ने धारण किया, धर्म प्रकृति अनमोल.
जो मानव सीखे सहज, सुख पाये अनमोल.
कर्ता भाव दूर रहे, मत रख भुक्ता भाव.
दृष्टा भाव प्रधान हो, चित्त रहे समभाव.
कण कण से निर्मित हुआ, तन का हर इक अंग.
सूक्ष्म दृष्टि से देख लो, कण कण होता भंग.
श्रुत प्रज्ञा ने दी दिशा, चिंतन पज्ञा ज्ञान.
जो उतरी अनुभूति पर, प्रज्ञा वही महान.
मैने डाले बीज जो, बने वही संस्कार.
राग द्वेष पैदा किये, बने वह चित विकार.
संवेदनाएं अनित्य, चित्त जगा जब बोध.
मार्ग मुक्ति के खुल गये, रहा न इक अवरोध.
जब से पाई विपश्यना, मिली धर्म की गोद.
चुन चुन कर विकार सभी, मन ने डाले खोद .
आना जाना खेल है, जो समझे वह संत.
शुद्ध धर्म धारण करे, करे खेल का अंत.