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कुछ दोहे / शिवराम

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हे वारिद इस बार तो, बरसो कुछ इस ढंग
अंग-संग भीगे ह्रदय, धरती बदले रंग

रे मन तू है बावला, पत्थर ढूंढे गंध
वन उपवन की टोह ले, फूलों महके गंध

प्रेम-प्रेम सब ही कहें, प्रेम करे ना कोय
ढाई आखर घृणा का, धर्म सिखावै मोय

श्रम बेचन मैं जब गई, नहीं मिला कुछ मोल
राजी देह बेचन हुई, कंचन दीना तोल

पांच कोस से मूंड पर, रख मटकी श्रीमान
लाई हूँ बड़ जतन से, पीयो अमृत जान

इक का जीवन परिश्रम, एक का जीवन लूट
तू किसके संग है खड़ा, खुद अपने से पूछ

हवा में उड़ मत ए सखा, हवा में कर मत बात
हवा में जो ज्यादा रहे, हवा-हवा हो जात

कोई भी सुलतान हो, कोई होय वजीर
बिना लड़े बदले नहीं, जनता की तकदीर

तेरी मुक्ति के लिए, कर तू ही संघर्ष
ना सहाय कोई देवता, न कोई ईश-विमर्श

क्या है जग के कायदे, क्या है जग की रीत
कौन जनक अन्याय का, सोच समझ और चीत

जो मुक्ति तुमको मिले, मृत्यु के उपरांत
तो जीवन में क्या मिला, सोच रे मितवा भ्रांत

फूल संग खुशबू गई, प्राण देह के साथ
जीवन में ही मिले जो, ऐसी मुक्ति तलाश

पहले पड़ा अकाल अब, मंदी का तूफ़ान
श्रमिक-कृषक की ज़िंदगी, सदा दुखों की खान

ये कैसी मंदी सजन, मंदौ ना कछु होय
मंदौ केवल आदमी, मूंड पकरि कै रोय

पति पत्नी बच्चे सभी, जाएँ काम पर रोज
तब भी जीवन न चले, इसका कारण खोज

कैसे छुटकारा मिले, इस सिस्टम से सोच
दबा लिया जिसने तुझे, अब तू उसे दबोच

घर घुस आये भेड़िये, कुत्ते और सियार
देश तरक्की कर रहा, सोओ टांग पसार

जाओ जाओ रावरे, घूमो फिरो विदेश
सूटकेस ले हाथ में, रख थैले में देश

जब सत्ता के न्याय पर, उठ जाता विश्वास
होने लगती बगावत. बतलाता इतिहास

ऐसी दुनिया चाहिये, जहाँ न द्वेष-विकार
सबके सुख में हो जहाँ, निज सुख का विस्तार

ऐसा सोचा कीजिए, जब मन होय उदास
इक सुन्दर सा स्वप्न है, अब भी अपने पास