भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ नया करते हैं / लता अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आओ बैठो
कुछ नया करते हैं
रहकर मौन
जुबां को रख खामोश
आँखों से
बातें करते हैं।

बहुत पढ़–लिख लिया
पोथियों का लेखा
आओ आज
कुछ हटकर पढ़ते हैं
तुम पढो मेरा मन
मैं तुम्हें कलमबद्ध करती हूँ।

रिश्ते-नातों के
बन्धन से हो मुक्त
कोई नई इबारत
लिखते हैं
तुम पोंछो आँसू मेरे
मैं तुम्हारे सारे ग़म हरती हूँ।

सजाए बहुत
दर ओ दीवार मिट्टी के
आओ आज मन के
अंधेरे में झाँकते हैं
तमन्नाओं की उस अधूरी
चादर को फिर से सजाते हैं।

आओ बैठो
जीते रहे अब तक
सबकी खातिर
कुछ पल जिंदगानी के
अपनी खातिर भी
हम जीते हैं।