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कुछ न पूछूँ न कुछ कहूँ उससे / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

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कुछ न पूछूँ न कुछ कहूँ उससे
रंजो-ग़म सारे बाँट लूँ उससे

बाद मुद्दत के जब मिलूँ उससे
कोई अच्छी ग़ज़ल सुनू उससे

जब वो बाहों में मेरी आ जाए
इक सबक प्यार का पढ़ूँ उससे

जो नहीं ऐतबार के क़ाबिल
दूर ही दूर मैं रहूँ उससे

हाथ को जोड़कर वो देता है
कहती गैरत है कुछ न लूँ उससे

रू-ब-रू उससे हाल पूछूंगा
क्यों फक़त ख़्वाब में मिलूँ उससे

कट के आयी पतंग ये कहती है
है अनाड़ी तो क्यों उडूं उससे

जिसके एहसान में दबा हूँ मैं
किस तरह से भला लडूँ उससे

ले तेरे पास आज आ ही गया
जोशे-उल्फत में ये कहूँ उससे

हमक़दम दोस्त है, 'रक़ीब' नहीं
फ़ासला रख के क्यों चलूँ उससे