भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुछ न मिला / महेश अनघ
Kavita Kosh से
कुछ न मिला जब धनुर्धरों से
बंशी वारे से ।
हार-हूर कर माँग रहे हैं
भील-भिलारे से ।
ला चकमक तो दे
चिंतन में आग लगाना है,
थोड़ी सी किलकारी दे
बच्चे बहलाना है,
कैसे डरे डरे बैठे हैं
अक्षर कारे से ।
हम पोशाकें पहन
पिघलते रहते रखे-रखे,
तूने तन-मन कैसे साधा
नंग-मनंग सखे,
हमको भी चंगा कर
गंडा, बूटी, झारे से ।
हम कवि हैं
चकोरमुख से अंगार छीनते हैं,
बैठे-ठाले शब्दकोष के
जुएँ बीनते हैं,
मिले तिलक छापे
गुरुओं के पाँव पखारे से ।
एक बददुआ-सी है मन में
कह दें तो बक दूँ,
एक सेर महुआ के बदले
गोरी पुस्तक दूँ,
हमें मिला सो तू भी पा ले
ज्ञान उजारे से ।