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कुछ न हो पायेगा मौसम के गुज़रने पर / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'

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कुछ न हो पायेगा मौसम के गुजरने पर।
और हम मजबूर होंगे हाथ मलने पर।

पेड़ की जड़ पर मुसल्सल हो रहे हमले,
होश में आओगे क्या बरगद के ढहने पर।

रोकने को जु़ल्म मिलकर की न यदि कोशिश,
सारे पछतायेंगे ये मौका निकलने पर।

गा़ैर के काबिल रही उनकी अदाकारी,
दर्द छलका तक नहीं दिल के दरकने पर।

इत्तिला देते न अब तूफान आने की,
मत रहें ग़ाफ़िल हवा के सुस्त रहने पर।

अब बयाँ करती नहीं है आँख हाले दिल,
अब ध्ुाआँ उठता कहाँ है आग जलने पर।

हक बयानी पर मुकम्मल रोक ऐ ‘विश्वास’,
सिर्फ़ मुमकिन है हमारी जीभ कटने पर।