भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुछ पंक्तियाँ / प्रेमशंकर शुक्ल
Kavita Kosh से
पानी की ताक़त, सरलता और तरलता
पठनीय है
(लेकिन पानी की कोमलता रोम-रोम को
ज़ुबान दे देती है)
बादल बरस कर लुप्त हो जाते हैं
पर्जन्य !
रात एक वृक्ष है
जिसकी छाया में सब सोते हैं
(ओस को छोड़कर !)
पानी का पाट
बहुत चौड़ा है । बहते-बहते, तैरते-तैरते
पृथ्वी हुई गोल
तुम्हारे लट की (लटकी) बूँद !
मेरे सीने में झर कर
भर देती है अंतस् की पूरी एक झील
(यह सूखती नहीं कभी इसीलिए जब-तब
मेरे भीतर झुरझुरी उठ आती है !)
यह गोल पृथ्वी ला कर खड़ा कर देती है वहीं
चले थे जहाँ से हम !
तुम्हारी हँसी का अँजोर
मेरी खिलखिलाहट में बहता है !