भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ फूल : कुछ कलियाँ / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
डाल पर कुछ फूल थे
कुछ कलियाँ थीं!

फूल जिसे देने थे दिये :
तुष्ट हुआ कि उसने उन्हें
कबरी में खोंस लिया!

कलियाँ
कुछ देर मेरे हाथ रहीं
फिर अगर गुच्छे को मैं ने पानी में रख दिया
तो वह अतर्कित उपेक्षा ही थी :
कोई मोह नहीं।

शाम को लौट कर आ गया।
कबरी के फूल
जिसे दिये थे
उसी के माथे पर सूख गये
जैसे कि मेरा मन
मुरझा गया।

कलियाँ-उन का ध्यान भी न आया होता
पर वे तो उपेक्षा के पानी में
खिल आयी हैं!
यहीं की यहीं!

फूल : मन : कलियाँ :
सब अपने-अपने ढंग से
उत्तरदायी हैं।

फूल
मुरझाएगा :
वही तो नियति है :
होने का फल है।
पर उसी की अमोघ बाध्यता का तो बल हैजो कली को खिलाएगा, खिलाएगा।
जो मुझे
जहाँ मारेगा वहाँ मरने से बचाएगा
जो फिर तुम्हारे निकट लाएगा।
क्यों? नहीं?

नयी दिल्ली, अक्टूबर 1968