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कुछ भी कविता सा नहीं / रश्मि भारद्वाज

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एक सोए हुए अजगर पर अक्सर पंक्तिबद्ध रेंगते हुए
अनायास ही नज़र उठती है एक चेतावनी पर
जीने के लिए आज भी फेफड़ों में भरा जाएगा ज़हर
भीड़ का हिस्सा भी रहना है और अपने लिए एक अदद जगह भी बनानी है
सर्वाइवल के नियम याद रखते हुए
समझदारी से बोलना और चुप रहना सीखना है
मुस्कान ओढ़े आँखें छुपानी है
और उन्हें फेर सकना भी जानना है

दिखाई देती है दूसरी ओर ख़ामोश गुज़रती हुई
घर की ओर जाती रेल
बमुश्किल दफ़न की जाती है एक इच्छा
शामिल हुआ जाता है हर रोज़ एक अनचाही यात्रा में
अब घर ने भी बेवजह बुलाना छोड़ दिया है

एक यात्रा जो आरम्भ की गई थी सदियों पहले
जारी रहेगी सदियों तक
गुज़रती रहेगी सामने से उस शहर को जाती रेल
जिसमें बैठ सकना सिर्फ़ एक क्रिया भर नहीं
उसके साथ जुड़ी है हमारी सभ्यता की सम्पूर्ण बारहखड़ी
और फिर एक दिन शहर भी सपनों में आना बंद कर देगा
जैसे आजकल नहीं आती है कविता

यह चाह रही कि कभी तो कविता सा हो जीवन
जिसका कोई तयशुदा व्याकरण नहीं हो
एक दिन को जिया जा सके उसकी यायावरी में
एक शहर की आत्मा में झाँका जाए
पर सुबह से शाम तक
इतनी ज़्यादा खर्च होती जा रही ज़िन्दगी
और कुछ भी कविता सा नहीं
फिर भी रोज़ ख़ुद को यह याद दिलाये रखना ज़रूरी लगता है
कविता ही है जिसने बचाए रखा है