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कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं / हरिवंशराय बच्चन

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कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं!

उर में छलकता प्यार था,
दृग में भरा उपहार था,
तुम क्यों ड़रे, था चाहता मैं तो प्रणय-प्रतिकार मे-
कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं!

मुझको गये तुम छोड़कर,
सब स्वप्न मेरा तोड़कर,
अब फाड़ आँखें देखता अपना वृहद संसार में-
कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं!

कुछ मौन आँसू में गला,
कुछ मूक श्वासों में ढ़ला,
कुछ फाड़कर निकला गला,
पर, हाय, हो पाई कमी मेरे हृदय के भार में-
कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं!