कुछ भी नहीं जो याद-ए-बुतान-ए-हसीं नहीं / 'अफसर' इलाहाबादी
कुछ भी नहीं जो याद-ए-बुतान-ए-हसीं नहीं
जब वो नहीं तो दिल भी हमारा कहीं नहीं
किस वक़्त ख़ूँ-फ़शाँ नहीं आँखें फ़िराक़ में
किस रोज़ तर लहू से यहाँ आस्तीं नहीं
ऐसा न पाया कोई भी उस बुत का नक़्श-ए-पा
जिस पर के आशिक़ों के निशान-ए-जबीं नहीं
हर पर्दा-दार वक़्त पर आता नहीं है काम
एक आस्तीं है आँखों पर इक आस्तीं नहीं
दोनों जहाँ से काम नहीं हम को इश्क़ में
अच्छा तो है जो अपना ठिकाना कहीं नहीं
क्या हर तरफ़ है नज़ा में अपनी निगाह-ए-यास
ज़ानू पर उस के सर जो दम-ए-वापसीं नहीं
दोनों में सौ तरह के बखेड़े हैं उम्र भर
ऐ इश्क़ मुझ को हौसला-ए-कुफ़्र-ओ-दीं नहीं
वो महर वश जो आया था कल और औज था
आज आसमाँ पे मेरे मकाँ की ज़मीं नहीं
क्या आँख उठा के नज़ा में देखूँ किसी को मैं
बालीं पर आप ही जो दम-ए-वापसीं नहीं
पैदा हुई ज़रूर कोई ना-ख़ुशी की बात
बे-वजह ये हुज़ूर की चीन-ए-जबीं नहीं
ख़ैर आ के फ़ातिहा कभी इख़्लास से पढ़े
उस बे-वफ़ा की ज़ात से ये भी यक़ीं नहीं
ख़िलअत मिली जुनूँ से अजब क़ता की मुझे
दामन हैं चाक जेब क़बा आस्तीं नहीं
'अफ़सर' जो इस जहान में कल तक थे हुक्मराँ
आज उन का बहर-ए-नाम भी ताज ओ नगीं नहीं