Last modified on 18 सितम्बर 2011, at 00:05

कुछ भी नहीं लिखा / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

बहुत दिनों से कुछ भी नहीं लिखा मैंने
तुम्हारी याद की बाहों में सोया रहता हूँ
बुझी-बुझी-सी लगती है आस की आँखें
बेदर्द-सा दिखता है ये बदला मौसम
तमाम तमन्नाओं के चेहरे चुप हैं
बिखर गई है एक आह होठ से गिर कर
मेरे कमरे के कोने में अब भी रोज़ाना
साँस लेती है तेरी एक अधुरी करवट
स्याह रात के जंगल में प्यास नंगी है
मेरी छिली हुई छाती पे गर नज़र फेरो
तुम्हारे नर्म-से तलवों का लम्स ज़िन्दा है
आज भी ज़ीस्त से कहती है अज़ल बेचारी
अपनी रूह की रफ़्तार ज़रा कम कर दो
मेरी उम्मीद का ‘शौहर’ उदास है कब से
मुझे डर है कि कहीं खुदकशी न कर बैठे
किसी अश्क के दरिया में हसरतों का हुज़ूम
तुम अगर मानो तो अपनी गुज़ारिश कह दूँ
पाँव रखते हुए पलकों पे नींद से गुज़रो
बाल से तोड़ कर एक ख्वाब मुझे महका दो
सूने आँगन में सज जायेंगी बज़्में कितनी
दिल की दहलीज पर उग आयेंगी नज़्में कितनी
क़लम की बात सुनो लफ़्ज़ सही कहते हैं
तुम्हारी याद की बाहों में सोया रहता हूँ
बहुत दिनों से कुछ भी नहीं लिखा मैंने