कुछ भी / मृत्युंजय प्रभाकर
कितना बुरा लगता है
जब कुछ भी अच्छा नहीं लगता
मिठाई का स्वाद भी
कसैला जान पड़ता है
और माँ का दुलार भी
अक्षरों को साँप सूंघ जाता है
और लाइनें
लकीरों में तब्दील हो जाती हैं
बल्ले से ज्यादा चोट
हाथों का दबाव पहुँचाती है
गेंद को
नत्थू की जलेबी
भोला की आइसक्रीम
कच्चे तेल में तली फोफी भी
नीमराने लगती है
दोस्तों का साथ
ग़ालिब का शेर
सिनेमा का रूपहला पर्दा
महबूब की बाँह
सब फीका लगता है
स्वभाव से आतुर
नयनों से कातर
नाक पर गुस्सा रहता है
कितना दीन
तिरस्कृत
हीन ग्रंथि के शिकार सा
महसूस होता है
सबसे ज्यादा कोफ़्त
ख़ुद से होती है तब
औरों से गिला भले रहता है
टूटता है भीतर बहुत कुछ
जब वह कुछ नहीं समझता
जिससे उम्मीद होती है कि
वह सब समझ रहा होगा
रीतने लगता है
भोगा हुआ समय और यथार्थ
सबसे ज्यादा बेमानी लगता है
ख़ुद का होना
लम्हों के बेजारपने के बाद
ठीक हो जाता है सब
पटरी पर लौट जाता है जीवन
हिन्दी फ़िल्मों की तरह
अंत भला तो सब भला की तर्ज पर
पर कुछ अरसा बाद
लौटता है दुःस्वपन
नई फ़िल्मों के रिलीज की माफ़िक
जैसे दुश्चक्र हो कोई
फिर कुछ भी अच्छा नहीं लगता
कुछ दिनों तक
कितना बुरा लगता है तब।
रचनाकाल : 17.07.08