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कुछ लालच कुछ डर बैठा है, / राजमूर्ति ‘सौरभ’

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कुछ लालच कुछ डर बैठा है,
कुर्सी पर अफ़सर बैठा है।

चारा डाले जाल बिछाये,
दफ़्तर का दफ़्तर बैठा है।

मालिक बैठा है धरती पर,
गद्दी पर नौकर बैठा है।

शीश झुकाये था जो कल तक,
आज वही तनकर बैठा है।

उस रस्ते से बचकर जाना,
उसपर तो अजगर बैठा है।

बारी जब आयी लड़ने की,
छुट्टी लेकर घर बैठा है।

चेह्रा उड़ा–उड़ा सा क्यों है,
तू ऐसा क्या कर बैठा है।