कुछ लिख रहा हूँ / मनोज बोगटी / प्रदीप लोहागुण
मैं आग को खञ्जर से छोटे- छोटे टुकड़ों में काट रहा हूँ
क्योंकि योद्धा मेहमान हैं मेरे
मेरी थोड़ी सी आग उनकी भूख मिटा नहीं पाएगी
थोड़ी सी आग की शक्ति भी थोड़ी सी ही होती है
इन छोटे- छोटे योद्धाओं के पास
शब्द भी छोटे ही हैं.
छोटे- छोटे सपने हैं ।
उनको पता है
कि धरती छोटी- मोटी धूल और छोटे- छोटे पत्थरों के अलावा
कुछ नहीं है ।
मैं पानी को धूप में सुखा रहा हूँ
क्योंकि योद्धा मेहमान हैं मेरे
उनकी नींद को चुभन होती है ठण्डे पानी से भी ज़्यादा
मैं हवा को धो रहा हूँ
क्योंकि योद्धा मेहमान हैं मेरे ।
वे सांस नहीं ले पा रहे हैं
थोड़ी सी कच्चा हवा को
उनकी आत्मा के बीज को छूना होगा
थोड़े से युवा जल को
उनके अन्दर के सुप्त लहू को धोना होगा
थोड़ी सी ताज़ा आग को
उनके भीतर के पत्थरों को जलाना होगा
मैं आवाज़ को गीत सिखा रहा हूँ
क्योंकि योद्धा मेहमान हैं मेरे ।
कफ़न ओढ़े सोए हुए
उनके अन्दर के जीवन को
आवाज़ मिले
गीत की नागरिकता काग़ज़ पर छपे
अँगूठे भर नक़्शे की ज़मीन पर
इन्दिरा आवास योजना द्वारा अभिनीत नाटक
और वहीं खड़ा नायक देश
किसकी भाषा बोलता है ?
मैं गीत को शीशा दिखा रहा हूँ
मैं शब्दों को आवाज़ दिला रहा हूँ
मैं कविता को जीना सिखा रहा हूँ
मैं कुछ लिख रहा हूँ ।