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कुछ लोग ज़माने में ऐसे भी तो होते हैं / 'साग़र' आज़मी
Kavita Kosh से
कुछ लोग ज़माने में ऐसे भी तो होते हैं
महफ़िल में जो हँसते हैं तन्हाई में रोते हैं
जिन को तेरे चेहरे की परछाई नहीं मिलती
आँखों में वो आईने किरचैं सी चुभोते हैं
पीना तो उन्हीं का है जो पी के सँभल जाएँ
कम-जर्फ़ शराबों में क्यूँ होंट भिगोते हैं
मैं फूल बिछाता हूँ जिन लोगों की राहों में
अक्सर मेरी राहों में काँटे वही बोते हैं
इक तुम हो के कश्ती का तूफाँ में डुबो बैठे
इक हम हैं के तूफाँ को कश्ती में डूबोते हैं
जैसे कोई काग़ज पर तस्वीर बनाता हूँ
हम यूँ तेरे चेहरे को आँखों में समोते हैं
ये दर्द के टुकड़े हैं अशआर नहीं ‘सागर’
हम साँस के धागे में ज़ख़्मों को पिरोते हैं