कुछ लोग शहर छोड़कर जा रहे / विजय सिंह नाहटा
कुछ लोग शहर छोड़कर जा रहे
पर; कहीं होई हलचल नहीं
जो आए रोजगार की तलाश में-आस में
वो जा रहे कामगार पलायन कर
छेनी-हथौड़े घण् साज औजारों कें साथ
जब से कल काररवाने हुए बंद-उजाड
उदास पोटलियों में उठाये
गृहस्थी के भग्न सपने
लोग जा रहे हैं अन्तहीन
जबकि उनके पेट खाली हैं, जेब निहायत सूनी
कोई नहीं जानता किस दिशा जा रहे लोग
जबकि; हर शहर की सीमा सील है करफयू में
कहीं आबाद नहीं होता इनका घर
कोई शहर इनका अपना नहीं
कोई ज़मीन इनके हिस्से की जमींन नहीं
नहीं होता कोई आकाश ख़ुद का
जलते धैर्य के साथ, मगर इनके तन निस्तेज हैं
आत्मा पर ढो रहे असंख्य गहरे गड्ढे
जिसकी गणना भला कोई नहीं करता
कारखाने की चिमनी के धुएँ को पश्चाताप से देखते
न्याय देवी की मूरत को अपलक निहारते
लहराते तिरंगे में अदृश्य झांकते ये जन गण मन
स्टेशन की ऊंची इमारत पर टंगी
शहर के नाम की उदास वर्णमाला को
पढते मन ही मन-अलविदा कहते
अज्ञात भविष्य की धुंधली पगडंडियो पर
जा रहे कुछ डरे सहमे लोग
क्योकि; कदाचित-
छोटी रह गई यह पृथ्वी
उनकी ज़रूरतों को ढांपने
इसलिए; पतवार विहीन नौकाओं की तरह
जा रहे कुछ लोग
गोया; अनन्त की ओर।