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कुछ विरासत थी कुछ कमाए भी / विनोद तिवारी
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कुछ विरासत थी कुछ कमाए भी
दर्द अपने भी हैं पराए भी
हम ख़ुदाओं के द्वार तक पहुँचे
और नाकाम लौट आए भी
उनकी नाराज़गी नहीं टूटी
अपने दुखड़े उन्हें सुनाए भी
ज़िन्दगी धूप छाँव थी यारो
हम कि रोए भी मुस्कुराए भी
जिनपे इल्ज़ाम तस्करी का लगा
वो तो ले दे के छूट आए भी
मेरी ग़ज़लों को सुन के महफ़िल में
ख़ुश हुए लोग तिलमिलाए भी