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कुछ शब्द / धूप और धुआँ / रामधारी सिंह "दिनकर"

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वे अहिन्दीभाषी जनता में भी बहुत लोकप्रिय थे क्योंकि उनका हिन्दी प्रेम दूसरों की अपनी मातृभाषा के प्रति श्रद्धा और प्रेम का विरोधी नहीं, बल्कि प्रेरक था।

--हजारप्रसाद द्विवेदी

दिनकर जी ने श्रमसाध्य जीवन जिया। उनकी साहित्य साधना अपूर्व थी। कुछ समय पहले मुझे एक सज्जन ने कलकत्ता से पत्र लिखा कि दिनकर को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलना कितना उपयुक्त है ? मैंने उन्हें उत्तर में लिखा था कि–यदि चार ज्ञानपीठ पुरस्कार उन्हें मिलते, तो उनका सम्मान होता-गद्य, पद्य भाषणों और हिन्दी प्रचार के लिए।

--हरिवंश राय ‘बच्चन’

उनकी राष्ट्रीयता चेतना और व्यापकता सांस्कृतिक दृष्टि, उनकी वाणी का ओज और काव्यभाषा के तत्त्वों पर बल, उनका सात्त्विक मूल्यों का आग्रह उन्हें पारम्परिक रीति से जोड़े रखता है।

--अज्ञेय

हमारे क्रान्ति-युग का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व कविता में इस समय दिनकर कर रहा है। क्रान्तिवादी को जिन-जिन हृदय-मंथनों से गुजरना होता है, दिनकर की कविता उनकी सच्ची तस्वीर रखती है।

--रामवृक्ष बेनीपुरी

दिनकर जी सचमुच ही अपने समय के सूर्य की तरह तपे। मैंने स्वयं उस सूर्य का मध्याह्न भी देखा है और अस्ताचल भी। वे सौन्दर्य के उपासक और प्रेम के पुजारी भी थे। उन्होंने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ नामक विशाल ग्रन्थ लिखा है, जिसे पं. जवाहर लाल नेहरू ने उसकी भूमिका लिखकर गौरवन्वित किया था। दिनकर बीसवीं शताब्दी के मध्य की एक तेजस्वी विभूति थे।

---नामवर सिंह

सपनों का धुआँ राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की आजादी के बाद लिखी गईं कविताओं का संग्रह है।
इस संग्रह में दिनकर जी की उन कविताओं को संकलित किया गया है जिनमें समकालीन स्थितियों के प्रति उनकी भावनात्मक प्रतिक्रिया सशक्त रूप में प्रस्फुटित हुई है। इस पुस्तक में जहाँ एक तरफ स्वराज से फूटनेवाली आशा की धूप और उसके विरुद्ध जन्मे हुए असन्तोष का धुआँ कविताओं में प्रतिबिम्ब होता है वहीं, दूसरी ओर एक विदुषी को लिखा गया कवि का गीत-पुंज भी है जो कवि के गहन चिन्तन के दस्तावेज के रूप में हमारे सामने आता है।
मन-मस्तिष्क को उद्वेलित करने वाली ये कविताएँ सभी पाठकों के लिए उपादेय हैं।

दो शब्द

‘धूप और धुआँ’ में मेरी 1947 ई० से इधर वाली कुछ ऐसी स्फुट रचनाएँ संगृहीत हैं, जो प्राय: समकालीन अवस्थाओं के विरुद्ध मेरी भावनात्मक प्रतिक्रिया के रूप में प्रकट हुई हैं। स्वराज्य से फूटने वाली आशा की धूप और उसके विरुद्ध जन्मे हुए असन्तोष का धुआँ, ये दोनों ही इन रचनाओं में यथास्थान प्रतिबिम्बित मिलेंगे। अतएव, जिनकी आँखें धूप और धुआँ, दोनों को देख रही हैं, उनके लिए यह नाम कुछ निरर्थक नहीं होगा।

चाहिए तो यह था कि कविताएँ रचना के कालक्रम के अनुसार ही सजाई जातीं, मगर यह नहीं करके मैंने कई ऐसी कविताओं को आरम्भ में ही रख दिया है, जिनकी रचना हाल में हुई है। यह इसलिए कि मैं देखता हूँ कि इधर मेरे लिखने की तर्ज मेरी वर्तमान मनोदशा के मुआफिक भी आ ही रही है। यह प्रयोग है या प्रगति, मैं नहीं बता सकता। निश्चयपूर्वक इतना ही कह सकता हूँ कि आजकल इसी लहजे में बोलने में कुछ सन्तोष का अनुभव करता हूँ।

जन्माष्टमी, 1951

दिनकर