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कुछ शेर-1 / जावेद अख़्तर
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(1)
तुम अपने क़स्बों में जाके देखो वहां भी अब शहर ही बसे हैं
कि ढूँढते हो जो ज़िन्दगी तुम वो ज़िन्दगी अब कहीं नहीं है ।
(2)
जो बाल आ जाए शीशे में तो शीशा तोड़ देते हैं
जिसे छोड़ें उसे हम उम्रभर को छोड़ देते हैं ।
(3)
शब की दहलीज़ पर शफ़क़ है लहू
फिर हुआ क़त्ल आफ्ताब कोई
(4)
फिर बूँद जब थी बादल में ज़िन्दगी थी हलचल में
कै़द अब सदफ़ में है बनके है गुहर तन्हा ।
(5)
थकन से चूर पास आया था इसके
गिरा सोते में मुझपर ये शजर क्यों
(6)
कैसे दिल में खु़षी बसा लूं मैं
कैसे मुट्ठी में ये धुंआ ठहरे ।
शब्दार्थ
<references/>