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कुछ शेर / अनुपम कुमार

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बरस बीस जो लगाये हैं इल्म की आज़माइश में मैंने
अब जाके मेरे हुनर के फूल खिलने को हो रहे तैयार

बेज़री में जो सर मेरा किसी के सामने न झुका अबतक
ज़रदारी हुई तो किसी का सर अपने आगे न झुकने दूंगा

ख्व़ाब अब भी हमारी आँखों में सजने को तो हैं तैयार
बच्चों के सपने मगर उन्हें आँखों में टिकने नहीं देते

कफ़स में रहके जो सैयाद के तलवे चाटे
उस परिंदे को आज़ादी का कोई हक़ नहीं

फ़रेब ख़ुद से ही कुछ ऐसा खा गया हूँ मैं
किसी और को दोष देने का जी नहीं करता

दशरथ बनके आपने जो तीर चलाया था मुझ श्रवण पर
मौत मुझे देकर वो कर्म आप को भी स्वर्ग ले ही गया

गणेशों की प्रथम पूजा कराने के लिये न जाने कबतक
कितने और कार्तिकेयों को भ्रमण पे लगाएगी ये दुनिया

सियासत के माहुर से जो मत्त हो गए थे बैल सब
उनमें से कुछ को दंगल में नाथ दिया है जनता ने

न जाने इस बगीचे में कुछ ऐसे पेड़ भी कैसे उग आये
जिनपे बिन पतझड़ के भी सदा हरियाली ही रहती है
 
बहुत चाहा पर बिन पतझड़ के हरियाली का फ़न न सीख सका
न जाने कौन-सी दक्षिणा देकर लोग इस विद्या को साध लेते हैं

हम तो पतझड़ का भी इसी खातिर इंतज़ार करते हैं
कि हरियाली का मज़ा कहीं कम न हो जाए या रब्बा

आईने के सामने खड़े होके ख़ुद से ही माफ़ी मांग ली मैंने
सबसे ज़्यादा अपना ही तो दिल दुखाया मैंने औरों के वास्ते

शहर में लोगों की दुम पर पटाखे और सामने मांस का टुकड़ा है
हज़ार किये समझौते हैं, पीड़ा है, और मुस्कुराता हुआ मुखड़ा है

शब्द बनना चाहता था पर अंक बन गया हूँ
राजा तो न बनना था पर रंक बन गया हूँ

चंद रुपयों के लिये माँ –बाप मेरे अब परेशान तो नहीं होते
पर मुझसे गले मिलने को न जाने कब से मरे जा रहे हैं
 
उग आये हैं अब फफोले तेरी यादों के दिल पर
गर्म आंसू तेरी आँखों से क्यूँकर बहाए थे मैंने

कोई जो आके कह दे कि उसने मुझे याद किया
मैं ख़ुद को देख के कई दिन रूठा क्यूँ रहता हूँ
 
दस्तक अब भी हौले से दिल पे देती तो है मुहब्बत मगर
इस बला को फिर इस दिल में लाने का दिल नहीं करता

जानता हूँ जो और जैसा लिखा कोई बड़ा काम नहीं
पर मैं जो मेरा क़िस्सा न लिखता तो कौन लिखता