भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ शेष नहीं / रश्मि शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


फि‍र गि‍रे शाख से
कुछ भूरे, सूखे से पत्‍ते
हवाओं की कोई ख़ता नहीं
पत्‍तों में शेष न था कुछ

कुछ रि‍श्‍ते
चुपचाप सूखते हैं
और गि‍र जाते हैं एक दि‍न
रि‍श्‍ते की हरी डाल से,
सूखे पत्‍तों की तरह
कोई शोक नहीं मनाता
न पूछता है कुछ सवाल
बस लग जाता है
ऑंधि‍यों पर इल्‍जा़म
शब्‍दों की
ऑंधि‍यॉं
सुनामी सी हलचल
मचाती हैं, तो कभी
सागर में ज्‍वार उठाती हैं,
फि‍र सारा कुछ सामान्‍य हो जाता है
ऐसा भी होता है
अचानक पॉंव के नीचे
धरती हि‍लती है
और खूबसूरत काष्‍ठमंडप वाले
देश सा
ध्‍वस्‍त हो जाता है सब कुछ
जब तक समझे कोई
संभले कोई
सब ज़मींदोज़ हो जाता है
इसे भूरेपन से
कैसे बचा जा सकता है
कैसे मोड़े कोई लहरों का रुख
हरी धरा के सीने से
जब हरापन सोखता है कोई
रि‍श्‍ते को नींबू-सा
नि‍चोड़ता है कोई
तो क्‍या बचता है फि‍र
कसैलापन,सूखापन
फि‍र ढह जाती है धरती
गि‍रते हैं रि‍श्‍ते
खोते हैं बेहद अपनों को
क्‍योंकि‍
बचाने को कुछ शेष नहीं होता है।