कुछ सचों के बारे में / लवली गोस्वामी
कविता का एक सच सुनो
जब सब तेज़ तर्रार चौकन्ने झूठ सोते हैं
शर्मीली सच्चाईयाँ कविता में अंकुरती
जागती हैं
जब सदइच्छाऐं हारने लगती है
वे कला की शरण ले लेती हैं
तुम्हारी याद मुँह लटकाए
घर की सबसे छोटी चारदीवारी पर बैठी है
उसे अशरीरी उपस्थिति के लज़ीज़ दिलासे नहीं पसंद
शाखाओं की जड़ें पेड़ के अंदर फूटती हैं
प्रेम की शाखाएँ स्मृतियों के अन्दर फूटती हैं
मिठास रंग में डूबा हुआ ऊन का गोला है
जिसे बहते पानी बीच रख दो
तो रंग तमाम उम्र एक गाढ़ी लकीर बन बहता रहता है
प्रेम के गहनतम क्षणों में तुम्हारी हथेलियों बीच मेरा चेहरा
पहली किरण की गुनगुनाहट समोए
ओस के सितारे की तरह टिमटिमाता है
मेरे केश तुम्हारी उँगलियों से झरकर चादर पर
सपनों की जड़ों की तरह फैलते हैं
देह तुम्हारी ओर शाखाओं की तरह उमड़ती है
सघन मेघों की तरह मुझ पर झुके तुम मेरे सपने सींचते हो
मेरा स्वप्नफल तुम्हारी नाभि पर आदम के सेब की तरह उभरा है
तुमने देखा ? स्वयंभू शिव की भी नाभि होती है
कवि कुछ भी हो, अपने हजारवें अंश में सचों का पहरूवा होता है
हवा की रेल खुशबू को न्योतती नहीं है
खुशबू अनाधिकार हवा में प्रवेश नहीं करती
कुछ लोग बने ही होते हैं एक दूसरे में मिल जाने के लिए
हमें दुःख सिर्फ वह दे सकता है
जिससे हम सुख चाहते हैं
जिसके अंदर इच्छा ना हो
उस पर अत्याचार तो किया जा सकता है
लेकिन उसका शोषण नहीं किया जा सकता।