भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुछ सुनो मेरी अपनी सुनाओ कभी / सूरज राय 'सूरज'
Kavita Kosh से
कुछ सुनो मेरी अपनी सुनाओ कभी।
रास्ते में मेरा घर है आओ कभी॥
सैकड़ों घर जलाये हैं तुमने यहां
मर्द हो तो दिये भी जलाओ कभी॥
शौक उंगली उठाने का बेहद तुम्हे
आईने पर भी उंगली उठाओ कभी॥
रोज़ खिड़की से पर्दे हटाते हो तुम
अपनी आँखों से पर्दा हटाओ कभी॥
इक परिंदे ने पिंजरे के मुझसे कहा
एक शब कटघरे में बिताओ कभी॥
कितना मुश्किल है कहने से करना यहां
ज़र्फ़ ख़ुद का भी तो आज़माओ कभी॥
कारखाने तुम्हारे उजालों के हैं
इक गरीबों का "सूरज" बनाओ कभी॥