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कुण्डलियाँ-3 / बाबा बैद्यनाथ झा

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होता मन अरु बुद्धि में, प्रायः ही संघर्ष।
अगर बुद्धि है जीतती, तब मिलता उत्कर्ष॥
तब मिलता उत्कर्ष, हमें हैं मन भटकाता।
जब मन जाता जीत, क्षणिक आनन्द दिलाता॥
हो जब अनुचित कार्य, आदमी तब है रोता।
सबसे तेज सशक्त, हमारा मन ही होता॥

करता है जो साधना, नित्य कठिन संघर्ष।
पा लेता है बस वही, जीवन में उत्कर्ष॥
जीवन में उत्कर्ष, कठिन यह कार्य नहीं है।
निरुत्साह आलस्य, जिसे स्वीकार्य नहीं है॥
आने पर व्यवधान, नहीं जो किञ्चित् डरता।
वही उद्यमी व्यक्ति, प्राप्त सब कुछ है करता॥

पाना हो उत्कर्ष तो, रहे मात्र यह ध्यान।
निज प्रतिभा या ज्ञान पर, करें नहीं अभिमान॥
करें नहीं अभिमान, धैर्य भी खूब जरूरी।
वरना कोई चाह, नहीं हो सकती पूरी॥
प्रथम बना कर लक्ष्य, मार्ग पर है बढ़ जाना।
साहस से उत्कर्ष, सहज है सबको पाना॥

कलश
नायक का क्यों हो गया, आज बुरा यह हाल।
कनक कलश ले कामिनी, चले हंस की चाल॥
चले हंस की चाल, नयन सुख थोड़ा पाकर।
करना चाहे भेंट, निकट में उसके जाकर।
कई प्रेम के गीत, सुनाए बनकर गायक।
देख मधुर मुस्कान, तृप्त है थोड़ा नायक॥

पूजा करने था गया, जगन्नाथ शुभ धाम।
रथ पर बैठे मिल गये, मुस्काते घनश्याम॥
मुस्काते घनश्याम, दिव्यमय देख सवारी।
हुआ जन्म साकार, कृष्ण की है बलिहारी॥
स्वर्ण कलश से युक्त, नहीं रथ ऐसा दूजा।
मैंने सह परिवार, पुनः की विधिवत् पूजा॥

जाना था मन्दिर मुझे, पर मैं था अनजान।
दिव्य कलश जब दिख गया, लगा पुनः अनुमान॥
लगा पुनः अनुमान, तेज कदमों से जाकर।
पहुँच गया अति शीघ्र, धन्य हूँ दर्शन पाकर॥
एकमात्र था लक्ष्य, इष्ट को भोग लगाना।
अब मैं हूँ संतुष्ट, हुआ जब सार्थक जाना॥

पीते हैं गाँजा चरस, कहलाते गणमान्य।
दुरुपयोग करते सदा, बढ़ने पर धनधान्य॥
बढ़ने पर धनधान्य, वरण यह अपसंस्कृति का।
है प्रत्यक्ष प्रमाण, कथित समृद्ध संसृति का॥
रख यह मानस व्याधि, बहुत कम दिन वे जीते।
वे सब ही हैं त्याज्य, द्रव्य मादक जो पीते॥

सबसे प्रिय पक्षी अभी, गोरैया है लुप्त।
जान अशुभ संकेत यह, बौद्धिक जन हैं सुप्त॥
बौद्धिक जन हैं सुप्त, इसे है शीघ्र बचाना।
कुपित प्रकृति की चाह, हमें अब नाच नचाना॥
घटते आश्रित जन्तु, काटते वन हम जबसे।
बचे विरल हर जीव, निवेदन है यह सबसे॥

मानव जीवन प्राप्त कर, करते आप कुकर्म।
नास्तिक बन कर जी रहे, नहीं मानते धर्म॥
नहीं मानते धर्म, आपको सब दे लानत।
बन सकते हैं आप, वंश की श्रेष्ठ अमानत॥
देख आपका कृत्य, लोग कहते हैं दानव।
अपकर्मों को त्याग, बनें अब सच्चा मानव॥

रचते हैं कविता अगर, लिखिए सत्साहित्य।
जिसमें कुछ संदेश हों, भरा रहे लालित्य॥
भरा रहे लालित्य, सभी तब पढ़ना चाहें।
पुस्तक लोग खरीद, अमानत रखना चाहें॥
जब लिखते हैं आप, सत्य से क्यों हैं बचते?
बनें आप निर्भीक, छंद जब कोई रचते॥