कुण्डलिया-2 / बाबा बैद्यनाथ झा
चोटी पर चढ़ता वही, जो करता संघर्ष।
पा लेता वह शीघ्र ही, जीवन का उत्कर्ष॥
जीवन का उत्कर्ष, सुयश जग में पा लेता।
प्रेरित करने नित्य, मार्ग सबको वह देता॥
उसे न कुछ हो प्राप्त, रखे जो नीयत खोटी।
जो करता आलस्य, दूर उससे हर चोटी॥
रसना से हो उच्चरित, सदा कृष्ण का नाम।
तन से भी होता रहे, हर आवश्यक काम॥
हर आवश्यक काम, समर्पण भाव जरूरी।
होगी अपने आप, भक्त की इच्छा पूरी॥
दिखता दुर्लभ लक्ष्य, इष्ट का मन में बसना।
तभी बने निष्पाप, नियन्त्रित हो जब रसना॥
करते झाड़ू से सभी, बाह्य गन्दगी दूर।
पर अन्दर में मैल है, जमी हुई भरपूर॥
जमी हुई भरपूर, उसे भी दूर भगाएँ।
हृदय बने जब स्वच्छ, दिव्यमय काया पाएँ॥
जिनका मन हो साफ, पाप करने से डरते।
उधर नहीं दे ध्यान, बाह्य मल धोया करते॥
पावक का उपयोग तो, सबको है ही ज्ञात।
पंचतत्व में एक यह, सर्वाधिक विख्यात॥
सर्वाधिक विख्यात, जीव निर्मित हैं इससे।
पूरा यह संसार, लाभ पाता है जिससे॥
तन में जब हो आग, दौड़ सकता है धावक।
जब होगा वह क्रुद्ध, जला दे जग को पावक॥