कुण्डलिया-4 / बाबा बैद्यनाथ झा
जीते हैं जग में सभी, सुख-दुख ले संयुक्त।
युक्ति बता दें किस तरह, हो जाऊँ मैं मुक्त॥
हो जाऊँ मैं मुक्त, चक्र इस भव का टूटे।
लेकर प्रभु का नाम, प्राण अन्तिम में छूटे॥
प्रभु का पा सान्निध्य, भक्तिरस योगी पीते।
जग से जो आसक्त, पाशविक जीवन जीते॥
रोटी तो खाते सभी, निर्धन या धनवान।
भूख मिटाने के लिए, रोटी ही भगवान॥
रोटी ही भगवान, पेट जब रहता खाली।
करते लोग उपाय, संत या चोर मवाली॥
जो हैं अति सम्पन्न, रखें मत नीयत खोटी।
निर्धन को दें दान, मिले तब सबको रोटी॥
पहले निर्धारित करो, निज मंजिल की राह।
फिर जब पथ पर बढ़ चलो, करो नहीं परवाह॥
करो नहीं परवाह, विघ्न कोई भी आए।
कृतसंकल्पित व्यक्ति, नहीं किञ्चित् घबड़ाए॥
पथ पर रह गतिशील, कष्ट मिलने पर सह ले।
पा लेता वह लक्ष्य, ठान लेता जो पहले॥
वैसे पथ पर तुम चलो, जिस पर चलते नेक।
फिर पीछे मुड़ना नहीं, लक्ष्य बने वह टेक॥
लक्ष्य बने वह टेक, निरन्तर आगे बढ़ना।
क्या होता आसान, मूर्ति पत्थर पर गढ़ना?
गहरे पानी पैठ, खोजता मोती जैसे।
तुमको अपना लक्ष्य, प्राप्त करना है वैसे॥
चलता नित्य कुमार्ग पर, कहलाता है मूढ़।
मैंने जिस पथ को चुना, उसपर हूँ आरूढ़॥
उसपर हूँ आरूढ़, सफलता मिलती जाती।
प्रभु प्रेरित हर सिद्धि, स्वयं ही चलकर आती।
सामाजिक सद्भाव, हृदय में हरदम पलता।
जीवन का निर्वाह, कुशलपूर्वक है चलता॥
पाकर यह सम्मान मैं, आज पुनः हूँ धन्य।
बड़भागी मेरे सिवा, कहें कौन है अन्य॥
कहें कौन है अन्य, इसे मैं भाग्य मानता।
लिख लेता कुछ छन्द, नहीं कुछ और जानता॥
देती माता ध्यान, वही मुझसे लिखवाकर।
दिलवाती सम्मान, गर्व है इसको पाकर॥