कुण्डलिया से प्रीत-1 / बाबा बैद्यनाथ झा
करता हूँ मैं साधना, सरस्वती की नित्य।
माँ ही मेरे छन्द में, भर देती लालित्य॥
भर देती लालित्य, प्रेरणा उससे पाकर।
लिखता हूँ हर छन्द, भाव उत्तम ही लाकर॥
सहज सरल हर शब्द, पद्य में प्रायः भरता।
माँ देती आदेश, सर्जना तब ही करता॥
मिलकर रहने के लिए, परामर्श यह नेक।
ग्यारह भी बनता तभी, मिले एक से एक।
मिले एक से एक, साथ हम रहना सीखें।
पूरा जग परिवार, हृदय से कहना सीखें॥
समझ हमारा ऐक्य, दिखा दे पर्वत हिलकर।
गाएँ अनुपम गीत, एक सुर में सब मिलकर॥
करता है वह जानकर, सदा मुक्त आचार।
कहता ज्यों वह बैल को, आकर मुझको मार॥
आकर मुझको मार, अकारण रार करे वह।
बहुत बड़ा बन ढीठ, सदा तकरार करे वह।
मानव जीवन व्यर्थ, गँवाकर है वह मरता।
सदाचार से दूर, आचरण हरदम करता॥
करती हर आलोचना, सदा आपका काम।
हट जाएँगे आपके, अवगुण बन्धु तमाम॥
अवगुण बन्धु तमाम, दूर कर स्वच्छ बनाए।
निंदक हो जब पास, शेष हर ऐब हटाए॥
आलोचक को देख, अकारण दुनिया डरती।
गुणवानों की नित्य, प्रशंसा पृथ्वी करती॥
चलता है प्रारम्भ से, करते सभ्य समाज।
उचित लोक व्यवहार में, प्रचलित नेग रिवाज॥
प्रचलित नेग रिवाज, चुराती जूते साली।
दुल्हा देकर नेग, द्रव्य से भरता थाली॥
देने से उपहार, स्नेह का दीपक जलता।
पारम्परिक रिवाज, शुरू से है यह चलता॥
पहले सोचा ही नहीं, किये घिनौने काम।
अब क्या पश्चाताप से, खुश होंगे श्रीराम?
खुश होंगे श्रीराम, गलत करना हम छोड़ें।
बन जाएँ जब नेक, भक्ति से नाता जोड़ें॥
करें नहीं परवाह, लोग जो चाहे कह ले।
बुरे कर्म हम आप, छोड़ दें करना पहले॥
हो जाएँ यदि भूल से, गलत आपसे काम।
क्षमा माँग आगे बढ़ें, नहीं घटेगा नाम॥
नहीं घटेगा नाम, श्रेष्ठजन ऐसा करते।
करते पश्चाताप, नहीं वे फिर हैं लड़ते॥
निज कर्मों की आप, समीक्षा कर सो जाएँ।
कर लें आप सुधार, कभी त्रुटियाँ हो जाएँ॥
आती तुमको याद है, जब उसकी दिन-रात।
लिखा पत्र भेजा नहीं, यह अचरज की बात॥
यह अचरज की बात, प्यार में क्यों है शंका?
कहो मुझे है प्यार, ज़ोर से पीटो डंका॥
दिन में भी बदहाल, नींद में रोज़ बुलाती।
लोकलाज को त्याग, नहीं क्यों सम्मुख आती॥
मिलते हैं प्रारब्ध से, सबको सुख या कष्ट।
दुख होता सबसे अधिक, मिले स्वजन जब भ्रष्ट॥
मिले स्वजन जब भ्रष्ट, हृदय अतिशय रोता है।
कहते अनुभवजन्य, दर्द वह क्या होता है॥
हो जाता मन क्षुब्ध, अंग सब उसके हिलते।
बढ़ता है आक्रोश, दुष्टजन जब भी मिलते॥
जाने वह क्या दर्द को, जो है अनुभव हीन।
रहता भोग विलास में, निशिदिन जो तल्लीन॥
निशिदिन जो तल्लीन, लगाता सब पर लांछन।
प्रसवजन्य जो दर्द, उसे क्या जाने बाँझन॥
पालेगा जो दम्भ, श्रेष्ठतम खुद को माने।
हीन भाव से ग्रस्त, व्यंग्य करना ही जाने॥