कुण्डलिया / गजेन्द्र ठाकुर
कुण्डलिया
छत्ता घुरछा पल्लौसँ, भेल दिने अन्हार।
दिन बितलापर घर घुरी, काल भेल विकराल॥
काल भेल विकराल, पोरे-पोर सिहरैए।
सुनत केओ सवाल, बोल बगहा लगबैए।
ऐरावत बेहाल, बोल कतऽ भेल निपत्ता।
घुरियाए बनि काल, पैसि बिच घोरन छत्ता।।
शामिल बाजाक दुन्दभी वादक
देखैत दुन्दभीक तान
बिच्चहि शामिल बाजाक
सुनैत शून्यक दृश्य
प्रकृतिक कैनवासक
हहाइत समुद्रक चित्र
अन्हार खोहक चित्रकलाक पात्रक शब्द
क्यो देखत नहि हमर चित्र एहि अन्हारमे
तँ सुनबो तँ करत पात्रक आकांक्षाक स्वर
सागरक हिलकोरमे जाइत नाहक खेबाह
हिलकोर सुनबाक नहि अवकाश
देखैत अछि स्वरक आरोह अवरोह
हहाइत लहरिक नहि ओर-छोर
आकाशक असीमताक मुदा नहि कोनो अन्त
सागर तँ एक दोसरासँ मिलि करैत अछि
असीमताक मात्र छद्म
घुमैत गोल पृथ्वीपर
चक्रपर घुमैत अनन्तक छद्म
मुदा मनुक्ख ताकि अछि लेने
एहि अनन्तक परिधि
परिधिकेँ नापि अछि लेने मनुक्ख
ई आकाश छद्मक तँ नहि अछि विस्तार
एहि अनन्तक सेहो तँ ने अछि कोनो अन्त?
तावत एकर असीमतापर तँ करहि पड़त विश्वास!
स्वरकेँ देखबाक
चित्रकेँ सुनबाक
सागरकेँ नाँघबाक
समय-काल-देशक गणनाक
सोहमे छोड़ि देल देखब
अन्हार खोहक चित्र
सोहमे छोड़ल सुनब
हहाइत सागरक ध्वनि
देखैत छी स्वर सुनैत छी चित्र
केहन ई साधक
बनि गेल छी शामिल बाजाक
दुन्दभी वादक
- राजस्थानमे गाजा-बाजावलाक संग किछु तँ एहेन रहैत छथि जे लए-तालमे बजबैत छथि मुदा बेशी एहन रहैत छथि जे बाजा मुँह लग आनि मात्र बजेबाक अभिनय करैत छथि । हुनका ई निर्देश रहैत छन्हि जे गलतीयोसँ बाजामे फूक नहि मारथि, यैह छथि शामिल बाजा ।
मोनक रंगक अदृश्य देबाल
ढहैत भावनाक देबाल
खाम्ह अदृढ़ताक ठाढ़
आकांक्षाक बखारी अछि भरल
प्रतीक बनि ठाढ़
घरमे राखल हिमाल-लकड़ीक मन्दिर आकि
ओसारापर राखल तुलसीक गाछ
प्रतीक सहृदयताक मात्र
मोन पाड़ैत अछि इनार-पोखरिक महार
स्विमिंगपूलक नील देबाल बनबैत पानिकेँ नील रंगक
मोनक रंगक अदृश्य देबाल
ढहैत
खाम्ह अदृढ़ताक ठाढ़
बहैत
मन्दाकिनी जे आकाश मध्य
देखल आइ पृथ्वीक ऊपर
बद्री विशाल केदारनाथ
अलकनन्दा मन्दाकिनीक मेल
हरहड़ाइत धार दुनू मिलैत
मेघसँ छाड़ल ई ककर निवास !
बदरी गेलाह जे
नहि घुरलन्हि ओदरी हुनक ताहि
आइ बाटे-बाट आएल
शीतल पवनक झोंक खसि रहल भूमि
स्खलन भेल जन्तु सबहिक
हिम छाड़ल ई ककर वास !
हृदय स्तंभित देखि धार
पर्वत श्रेणीक नहि अन्त एतए
कटि एकर तीव्र नीचाँ अछि धार
दुहू कात छाड़ल पर्वतसँ ई
अलकनन्दे ई सौन्दर्य अहींक
मन्दाकिनी जे आकाश मध्य
देखल आइ पृथ्वीक ऊपर
हरहड़ाइत ई केहन फेनिल
स्वच्छ निर्मल मनुक्ख निवसित
नव दृष्टि देलक देखबाक आइ
शीतल पवनक छाड़ल ई सृष्टि
पक्काक जाठि
तबैत पोखरिक महार दुपहरियाक भीत
पस्त गाछ-बृच्छ-केचली सुषुम पानि शिक्त
जाठि लकड़ीक तँ सभ दैछ
पक्काक जाठि ई पहिल
कजरी जे लागल से पुरातनताक प्रतीक
दोसर टोलक पोखरि नहि
अछि डबरा वैह
बिन जाठिक ओकर यज्ञोपवीत नहि भेल
कारण सएह
सुनैत छिऐक मालिक ओकर अद्विज छल
पोखरिक यज्ञोपवीतसँ पूर्वहि प्रयाण कएल
पाइ-भेने सख भेलन्हि पोखरि खुनाबी
डबरा चभच्चा खुनेने कतए यश पाबी !
देखू अपन टोलक पक्काक जाठि ई
कंक्रीट तँ सुनैत छी पानियेमे रहने होइछ कठोर
लकड़ीक जाठि नहि
जकर जीवन होइछ थोड़