कुतरे गये फल / हरीशचन्द्र पाण्डे
हरे सुग्गे की लाल-लाल चोंच
ज्वार की एक कलगी पर बैठा तो मस्त हो गया ज्वार
एक सेब पर मारी चोंच आत्मा तक मीठा हो गया
सुग्गे का जूठा जूठा नहीं
कैसे छाँटता है ढेर सारे फलों में से ख़ास फल कुतरने के लिए
कैसे लोकता है एक छोटे फल में कुतरने की ख़ास जगह
निर्भार हो कर कैसे बैठ जाता है हिल रहे पके फल पर
कैसे रखता है फल के भीतर की सारी रस-ख़बर
लाल चोंच की संगत में एक फल डोर रहा है
अपनी ही देह के संकीर्तन से गुजर रही हैं एक पेड़ की जड़ें
अभी संसार की सबसे नर्म रज़ाई पर तगाई का काम
चल रहा है
दुनिया की सारी दरारें भरी जा रही हैं अभी
अभी एक सुग्गा फल कुतर रहा है
स्वर्ग से उतर आओ देवताओ
अक्षत नहीं इन कुतरे फलों का नैवेद्य स्वीकारो
अप्सराओ आओ
कुतरे फलों को बिराती, ढेर लगाती
उस औरत की कुल मिठास अन्दाज़ो