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कुतुबमीनार की सीढ़ियों पर / बीना रानी गुप्ता

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कुतुबमीनार की सीढ़ियों पर
चार दिसम्बर को अनगिनत बच्चों का मेला था
एक तूफान उठा अनायास
एक दम घुप्प अंधेरा था
इस अंधेरे राक्षस ने
काल की ओर मेले को धकेला था
काल को भेजने वाला
और कोई नहीं
इस मेले का एक नवेला था।

हर कोई सिमट गया अपने में
तंगदील सीढ़ियों पर
कछुए सा दबाता सिमटता जाता
कोई अपना तन
इस सिमटन में सांसें रूकी
बचा केवल निर्जीव तन।

कहीं सुनाई पड़ती थी
अबोध बच्चों की चीत्कारें
घुटती आवाजें
दम तोड़ती सांसें
खुद को बचाने की खातिर
हर किसी को रौंदता गया
स्वयं किसी से रूंदा लुढ़कता
अथाह निद्रा में सो गया।

दो पल में ही
किसी की मांग का उजड़ा सिंदूर
किसी की आंखों का खो गया नूर
किसी का भाई बहन से हुआ दूर
कोई अनाथ हो आश्रय पाने को मजबूर।

ओ कुतुब! तू चुप क्यों है?
तेरी आँखों में अश्रु क्यों नहीं?
क्या तेरे अश्रु सूख गये?
तूने देखा है
पनी बिन प्यासों को मरते हुए
वायु बिन साँसों को घुटते हुए
क्या तेरी असीम सीढ़ियों पर
इसलिए रखा था कदम
वे फिर कभी लौट कर न आएं
वापसी का इंतजार करते दरवाजे खुले रह जाएं।
क्या मिट सकेंगे?
तेेरे तन पर लगे खून के धब्बे?
तेरी सीढ़ियों पर ही गिरे थे
मासूम भूखे बच्चों के डिब्बे
क्या विस्मृत कर सकेगी तू?
वे तड़़फते मृत बच्चे।

क्या कहती है तू?
यह तेरा दोष नहीं
यह तो दोष है उस निर्दयी पीढ़ी का
जिसने मुझे शमशान बना दिया
जिसके हाथ की अंगुलियां
मेरे तन पर लगे स्विच पर चली
मेरी अंधेरी गुफा में सब समा गए।

मेरी यशस्वी पताका को
अपने क्रूर हाथों से जला गए।

मैं चुप हूं
कोई है जो
मेरे हृदय की टीस को दबा दें।
मैंने जो देखा है आँखों से अपनी
विस्मृत कर
मुझे आज हँसा दे।