कुत्ता और इत्र की शीशी / बाद्लेयर / सुरेश सलिल
‘अच्छे कुत्ते, सुन्दर कुत्ते, प्यारे पप्पी,
आओ, ज़रा, सूँघो तो ख़ुशबू इस अतर की !
बेहतरीन अतर ये मैं लाया जहाँ से
वो है सबसे अच्छी दूकान शहर की ।’
आता है कुत्ता, हिलाता हुआ पूँछ
जो मेरे ख़याल में, इन नामुराद प्राणियों में
हंसी और मुस्कुराहट मुहैया करानेवाली एक ही निशानी है ।
आता है कुत्ता और अपना गीला नथुना
शीशी के खुले मुँह के पास ले जाता है
और ख़ौफ़ से भरकर — बिदककर
भौंकता है मुझ पर
उलाहना-सा देता हुआ ।
‘बदक़िस्मत कुत्ते, अगर मैंने तेरे आगे
विष्ठा का एक ढेर पेश किया होता
तो तूने उसे मगन-मन सूँघा होता, और शायद...
खाया भी होता...
‘लिहाज़ा, ओ मेरी अभागी ज़िन्दगी के नालायक़ सँगाती,
तू भी बमपुलिस जैसा ही निकला
जिसे कभी कोई नहीं पेश करता लज़ीज़ ख़ुशबुएँ,
पेश करता है चुनिन्दा बदबुएँ ।’
अंग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल