भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुदरत: 1 / मीठेश निर्मोही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

विकारां सूं मुगती पावण
धार लेवै आपरौ
अनाद अखूट
सरूप।

नित अर निरपेख
व्हियां
थूं !

इस्ट, अनिस्ट
अर तटस्थ
जैड़ा बजर सबदां नै
प्राण सूंपता
अेक-मेक व्हे जावै
थारा सगळा
गुण।

समाय जावै
सत में सत
रज में रज
तम में तम
थूं व्हे जावै
जथाजोग।

औ जथाजोग होवणौ ई
थारौ पाछौ
जलमणौ है
मां!